आज के बदलते दौर में सबसे ज्यादा बदलाव अगर कहीं दिखता है, तो वो बच्चों की दुनिया में।
“Bachche Ab Bachche Nahi Rahe…” एक ऐसी irony poem है जो मासूम बचपन के खो जाने, समय से पहले बड़े हो जाने और modern life की गड़बड़ियों पर तीखा लेकिन सच्चा व्यंग्य करती है।
इस कविता में वो सच छुपा है जिसे हम मानना नहीं चाहते, पर हर रोज देखते हैं—बचपन अब पहले जैसा नहीं रहा। यह poem आपको सोचने पर मजबूर कर देगी कि हम बच्चों को क्या दे रहे हैं और बदले में उनसे क्या खो रहे हैं।
बच्चे अब बच्चे नहीं रहे……..

बच्चे अब बच्चे नहीं रहे
उम्र के बंधन कच्चे हो गए
बच्चे अब बच्चे नहीं रहे
बच्चों का वो मासूम बचपन
अब तो वो बातें करते हैं पच्चपन
बच्चे समय से पहले बड़े हो गए
कच्छे के वो सारे भेद समझ गए
बच्चे भी अब बच्चों की बातें करते हैं
जिसकी अभी जरुरत नहीं
वो भी समझ गए
उम्र के बंधन अब कच्चे हो गए
सच जानते हैं वो
इसलिए अब सच्चे नहीं रहे
बच्चे अब बच्चे नहीं रहे
दिमाग में कचरा बहुत भर गया हैं
न जाने ये गन्दगी
अब कौनसा रूप लेगी
बच्चे अब बच्चे नहीं रहे
ऊपर वाला भी सोच रहा होगा
‘नौ’ में से कुछ कम कर दूँ
ताकि कुछ दिन तो बचपन भी रहे
क्योंकि बच्चे तो अब बच्चे नहीं रहे……….
सुरेश के
सुर………..
Kids aren’t kids anymore………..

Kids aren’t kids anymore.
The bonds of age have become raw.
Kids aren’t kids anymore……….
The innocent childhood of kids.
Now they talk nonsense……….
Kids grow up prematurely.
They understood all the
secrets of ‘Pajama’.
Now even kids talk about kids……….
Which is not needed now
they also understood.
The bonds of age have become
raw now.
They know the truth.
So they are no longer true.
Kids aren’t kids anymore………
The mind is full of garbage!!!!!
Nobody knows………
What form will it take now!!!!!!
Kids aren’t kids anymore……….
God must be thinking too
Let me reduce something
out of ‘nine’.
So that childhood remains
for some days.
Because kids aren’t kids anymore……….
Suresh Saini
अगर आपने भी महसूस किया है कि बच्चों की innocence अब धीरे-धीरे fade हो रही है, तो यह कविता आपकी ही बातों को एक व्यंग्यात्मक अंदाज में सामने रखती है। Poem पढ़कर आपको क्या महसूस हुआ—क्या आज का बचपन सच में खो रहा है?
नीचे Comment में अपनी राय जरूर Share करें। आपकी thinking किसी और के बचपन को भी बचा सकती है।
अगर आपको “Bachche Ab Bachche Nahi Rahe…” पर लिखा यह व्यंग्य पसंद आया हो, तो एक बार “Shahar Ka Chalan…” भी जरूर पढ़ें।
इस कविता में गांव की सरल जिंदगी पर शहर के बढ़ते असर और बदलते दौर की irony को गहराई से महसूस किया जा सकता है।
