“शहर का चलन” — यह कविता गांव की बदलती तस्वीर को एक व्यंग्यात्मक अंदाज में पेश करती है। जैसे-जैसे आधुनिकता और शहरी चकाचौंध गांव तक पहुँचने लगी है, वैसे-वैसे वहां की सरलता, संस्कृति और आत्मा कहीं खोने लगी है।यह कविता एक आईना है उस बदलाव का, जहां बच्चों की मासूमियत अब “नई शैली” में ढल चुकी है, जहां ‘काका’ अपनी ही बोली भूल चुके हैं, और ‘बाबा’ अब अस्पताल तक सीमित हो गए हैं।”शहर का चलन गांव में पहुँच गया” — ये पंक्ति सिर्फ बदलाव नहीं, बल्कि उस असली ग्रामीण जीवन के खोने का संकेत है, जिसे हमने कभी गर्व से अपनाया था।यदि आप गांव की मिट्टी की सोंधी खुशबू को महसूस करते हैं, तो यह कविता आपको सोचने पर मजबूर कर देगी।
शहर का चलन……….
शहर का चलन गांव में पहुँच गया
गांव में भी रात को शोर मच गया
शहर का चलन गांव में पहुँच गया
संगीत चाहे छूट गया पर
शोर पहुँच गया
गांव का बच्चा – बच्चा
नई शैली में ढल गया
गांव का छोरा – छोरी
आजकल जोड़ी हो गया
शहर का चलन गांव में पहुँच गया
कपड़े की नई बड़ी दुकान खुल गई
और गांव आज अधनंगा हो गया
खाना भी घर मंगाने का चलन हो गया
और ‘बाबा’ भी घर से
अस्पताल में पहुँच गया
बात करने के लिए
जादुई ‘डब्बा’ हाथ में आ गया
पर ‘काका’ खुद की बोली भूल गया
शहर का चलन गांव में पहुँच गया
अंधी दौड़ में
मेरा गांव सफल हो गया…………
सुरेश के
सुर…………
Trend of the city…………
The trend of the city
reached the village.
Noise in the village also at night.
The trend of the city
reached the village.
The music may have been missed
but the noise reached.
Village child – child
adapted to the new style.
Village boy – girl……..
Nowadays it is a couple.
The trend of the city
reached the village.
A new big clothing shop has opened
and the village became
half naked today.
It has also become a trend
to order food at home
and ‘Baba’ also reached from home
to the hospital.
To talk……….
The magical ‘box’ came into hand
but ‘Kaka’ forgot his own speech.
The trend of the city
reached the village.
In a blind race,
my village became successful…………
Suresh Saini
“शहर का चलन गांव में पहुँच गया” — इस व्यंग्यात्मक कविता का हर शब्द एक गहरी सच्चाई को उजागर करता है। विकास की रफ्तार ने गांवों तक पहुंच तो बना ली, लेकिन साथ ही साथ वहां की आत्मा, संस्कृति और सरलता को पीछे छोड़ दिया।गांव अब शहर की नकल में आगे तो बढ़ रहा है, मगर अपनी पहचान खोता जा रहा है।नई दुकानों, मोबाइलों और शोर-शराबे के बीच अब ‘काका’ की बोली, ‘बाबा’ का अनुभव और बच्चों की मासूमियत कहीं गुम हो गई है।
यह कविता न केवल गांव के बदलते रूप की एक झलक है, बल्कि यह एक सवाल भी छोड़ जाती है — क्या यह बदलाव तरक्की है, या अपनी जड़ों से दूरी की शुरुआत?
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